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प्रिये पाठक,
चेतना पत्थर में सोती है, वनस्पति में जागती है, पशु में चलती है और मनुष्य में चिंतन करती है | अतः चिंतन करना मनुष्य की पहचान है | मैंने भी कुछ बातो पर चिंतन किया है और इस चिंतन में अरुण कुमार शर्मा रचित ‘तीसरा नेत्र’ , बिनोबा भावे का प्रबचन तथा पंडित हंसकुमार तिवारी के ‘ तांत्रिक साधना का काफी योगदान रहा है| मै इनको आभार प्रकट करता हूँ | मै कहा तक सफल हुवा हूँ, इसका निर्णय अब आपके हाथ में है| कृपया अपने विचार से मुझे जरुर अवगत कराये|
आपका – धीरज कुमार श्रीवास्तव 9431000486
ईश्वर क्या है? क्या है इसका रूप? क्या यह साकार है या निराकार? क्या ईश्वर है भी? मै ईश्वर को क्यों मानु? क्या पत्थरो में भी ईश्वर होता है? इस तरह के तमाम सवाल गूंज रहे थे मेरे कानो में, जब मै एक धर्म-सभा में ‘गीता प्रबचन’ सुन रहा था| ये प्रश्न कुछ इस तरह से मेरे मस्तिस्क में कुलबुला रहे थे की मुझे पूछना पड़ा – हे देव, अभी अभी आपने कहा की आत्मा अमर है, न मरती है, न जन्म लेती है, तो कृपया मुझे यह बताये…ये जो जनसँख्या बढ रही है हर जीवो की, निरंतर, लगातार…तो ये बढ रहे जीवो की आत्माए कहा से आती है, जबकि आपके कथनानुसार आत्मा जन्म ही नहीं लेती है| इस तरह तो पूर्व में जीवो की जो संख्या थी, वर्तमान में भी वही होना चाहिए| तो हे देव, रोज रोज ये नयी आत्माए कहा से आ रही है? मेरे मस्तिस्क के सोचने वाले kire ने फिर कुलबुलाया – हे देव, अभी अभी आपने कहा – जो हुवा, अच्छा हुवा| जो हो रहा है, वह अच्छा हो रहा है| जो होगा वह भी अच्छा ही होगा| सारा कार्य सुनियोजित है, पूर्व निश्चित है| भगवIन के मर्जी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता| तो हे देव , अगर सारा कुछ पूर्व निश्चित है तो मै पुन्य करू, ये भी पूर्व निश्चित है, तो मै पाप करू, ये भी पूर्व निश्चित है….तो पुन्य पर स्वर्ग मिले तो पाप पर नरक क्यों? आखिर नरक का अस्तित्व क्यों?…
प्रवचनकर्ता ने मुझे जबाब दिया, अवश्य दिया किन्तु मै समझ न सका या स्वीकार न कर सका| इस बात की चर्चा जब मैंने अपने मित्र-मंडली में की तो जबाब आया की तुम बिज्ञान के छात्र….आद्यात्म क्या जानो, बहुत unchi चीज है यह| अध्यात्म और विज्ञान दोनों में दूर का रिश्ता है| तुम्हारा बिज्ञान तो ये भी जबाब नहीं दे सकता है की पहले मुर्गी हुई या अंडा? क्या तुम बता सकते हो की पहले गुठली हुवा या आम? मैंने सोचा…खूब सोचा..क्या वास्तव मै विज्ञान एवं आध्यात्म अलग अलग चीजे है…मुझे यह स्वीकार्य नहीं..मै इसे नहीं मानता |
१७.६.१० क्रमशः
हाँ, मै मानता हूँ की विज्ञान एवं आध्यात्म का दूर का रिश्ता है; किन्तु दुरी ऐसी नहीं की तय ही न हो सके| मै तो आध्यात्म को भी विज्ञान ही मानता हूँ–एक पराविज्ञान|
हमलोग एक कमरे में बंद है| बंद कमरे में भीतर पलंग है, कुर्सी है, पोस्टर है, यही विज्ञान है, क्योकि ये हमें ज्ञात है, हमें मालूम है की ये क्या है; किन्तु बंद कमरे के बाहर क्या है, हम कल्पनाये करते है, ये आध्यात्म है| विज्ञान की सीमा बंद कमरे में दिवालो के भीतर है| उसके बाद शुरू होती है आध्यात्म | हमने ज्ञान पाया और ऐसा सामर्थ्य आया की हमने खिड़की खोल दी कमरे की, विज्ञान की सीमा बढ़ गयी| कमरे के बाहर आँगन है, फुलवारी है; ये भी विज्ञान के अंतर्गत आ गया| लेकिन उस फुलवारी के आगे क्या है, ये हमें नहीं पता..तो उसके आगे आध्यात्म है| पुनः कमरे से बाहर आ हम उस फुलवारी के आगे भी देख सकेगे…वो भी विज्ञान हो जायेगा, किन्तु फिर उसके आगे..? आध्यात्म रहेगा….| तो मेरी समझ से मूलतः आध्यात्म एवं विज्ञान में कोई फर्क नहीं है| आध्यात्म ही विज्ञान है, एक अज्ञात विज्ञान और विज्ञान ही आध्यात्म है, एक ज्ञात आध्यात्म | हम ज्यो ज्यो आगे बढ़ते जायेगे, आध्यात्म विज्ञान होता जायेगा |
१८.६.१० क्रमशः
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