- 157 Posts
- 309 Comments
योग में एक अत्यंत प्रचलित शब्द है ‘निर्वाण’ | मगर निर्वाण है क्या ? यह बहुत ही कम लोग जानते पहचानते है | अनुभव विहीन होना ही निर्वाण है | जब तक अनुभव है, चाहे सुख का या दुःख का, चाहे हर्ष का या विषाद का, तब तक संसार है | आनंद का अनुभव भी इसी तरह संसार है | जिस तरह जब तक बीज नहीं टूटता तब तक उसका अस्तित्व नहीं प्रकट होता उसी तरह जब तक ‘आनंदमय कोष’ जो आत्मा का खोल है, जब तक नहीं टूटता, आत्मा का अस्तित्व भी प्रकट नहीं होता | यही कारण है कि योगियों ने कभी भी आनंद की खोज नहीं की, वे उस अवस्था की खोज में रहे जब आनंद भी तिरोहित हो जाता है | योगी तो, मै कहता हूँ वो हैं जो आनंद को भी ऐसे ही छोड़ देते हैं जैसे बीज अपने खोल को | जब हम इन पांचो शरीर को (अन्नमय शरीर, प्राणमय शरीर, मनोमय शरीर, विज्ञानमय शरीर एवं आनंदमय शरीर) पारदर्शी बना देते हैं तो हमें उसे खोजने की जरुरत नहीं | वह स्वयं हमें खोज लेता है | जैसे एक फुल पानी में तैरता है, जैसे ही वह भंवर के नजदीक जाता है, भंवर उसे अपनी ओर खींच लेता है | फिर फूल भंवर में विलीन है | फूल को प्रयास नहीं करना पड़ता | इसी को कहते हैं ‘निर्वाण’ |
Read Comments