Menu
blogid : 954 postid : 390

योगशास्त्र एवं आध्यात्म – ३४. दिव्य्माया: ये जन्म और मरण तो शरीर का होता है, मेरा नहीं हो सकता

Dharm & religion; Vigyan & Adhyatm; Astrology; Social research
Dharm & religion; Vigyan & Adhyatm; Astrology; Social research
  • 157 Posts
  • 309 Comments

अचानक इस ‘कहाँ तक जाना है’ ने मुझे झकझोर दिया | क्या सचमुच संभव है, क्या सचमुच…..शायद मेरे मन की भावना को समझ गई वह दिव्य्माया, बोली – इसमें आश्चर्य की क्या बात है | योगतंत्र की साधना एक ही जन्म में पूरी नहीं होती | कई जन्म लेने पड़ते है | लेकिन ये जन्म और मरण तो शरीर का होता है, मेरा नहीं हो सकता | मै तो शाश्वत हूँ | तुम भी शाश्वत हो | ऐसा प्रतीत होता है कि तुमसे मेरी भेंट अवश्य होगी | तुम तो मुझे न पहचान सकोगे, लेकिन तुमको मै अवश्य पहचान लुंगी, ….देखो$$$$ देखो$$$$ कही योग्य गर्भ का निर्माण होनेवाला ही है | मै अधिक प्रतीक्षा नहीं कर सकती, तुम लौटो, वापस लौटो, शीघ्र…..छोड़ो$$$$$$ | मै भौचक्का रह गया | कुछ बोला न गया और न तो कुछ कहा ही गया मुझसे | सब कुछ स्याह अंधकार में डूब गया | दिव्य्माया का अस्तित्व तिरोहित हो चूका था | ……….हरिः ॐ तत्सत | ॐ तत्सदिति आशु: ब्रहविद्यायां योगशास्त्रे ‘अहम्’ जीवनयोगो नाम अध्याय: || ३.०३ AM, २९ अप्रैल २०९४; शकः १९१६; वै. कृ. ४ ||

तो क्या भविष्य विल्कुल अनिश्चित नहीं है ! शायद ऐसा हो | मुझे लगता है कि भविष्य में देखने की प्रक्रिया अवश्य है |

cont…Er. D.K. Shrivastava (Astrologer Dhiraj kumar) 9431000486, 2.8.2010

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published.

    CAPTCHA
    Refresh