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नेताजी – जिन्दा या मुर्दा ६. एक परिचय: – फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना एवं कारावास

Dharm & religion; Vigyan & Adhyatm; Astrology; Social research
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फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना

3 मई, 1939 के दिन, सुभाषबाबू नें कांग्रेस के अंतर्गत फॉरवर्ड ब्लॉक के नाम से अपनी पार्टी की स्थापना की। कुछ दिन बाद, सुभाषबाबू को कांग्रेस से निकाला गया। बाद में फॉरवर्ड ब्लॉक अपने आप एक स्वतंत्र पार्टी बन गयी।

ब्रिटेन ने बिना काँग्रेस से मशविरा किये भारतीय सैनिकों को विश्वयुद्ध में झोंक दिया। नेताजी इसके विरोध में कोलकाता में भाषण देते हैं और लेख लिखते हैं। सरकार को मौका मिल जाता है और भारत सुरक्षा कानून (धारा- 129) (Defence of India Act (Article- 129)) के तहत 2 जुलाई 1940 को नेताजी को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया जाता है। इस कानून के तहत सुनवाई की भी गुंजाईश नहीं है। नेताजी समझ जाते हैं कि विश्वयुद्ध समाप्त होने तक सरकार उसे जेल में ही रखने का इरादा रखती है।

द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने से पहले से ही, फॉरवर्ड ब्लॉक ने स्वतंत्रता संग्राम अधिक तीव्र करने के लिए जनजागृती शुरू की। इसलिए अंग्रेज सरकार ने सुभाषबाबू सहित फॉरवर्ड ब्लॉक के सभी मुख्य नेताओ को कैद कर दिया। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सुभाषबाबू जेल में निष्क्रिय रहना नहीं चाहते थे। नेताजी ब्रिटिश सरकार से अनुरोध करते हैं कि या तो अदालत में उन्हें दोषी साबित किया जाय, या फिर रिहा किया जाय। सरकार दोनों में से कुछ भी नहीं करती है। सरकार को उन्हे रिहा करने पर मजबूर करने के लिए सुभाषबाबू ने जेल में आमरण उपोषण शुरू कर दिया। वे बस जेल से बाहर आना चाहते हैं- जिन्दा या मुर्दा। २९ नवम्बर १९४० को जेल में नेताजी ने आमरण अनशन एवं शहीद होने की घोषणा कर दी तथा बंगाल के गवर्नर को पत्र लिखा – अन्याय एवं अनैतिकता से समझौता करके अपने अस्तित्व की भिक्षा मांगना मेरे सिद्यांत के विरुद्य है | सिद्यान्तो को बेचकर अपने जीवन को खरीदने की अपेक्षा मैं जीवन को ठुकरा देना अच्छा समझता हूँ | शासन अपनी पाशविक के बल पर मुझे जेल में बंद करना चाहती है, इसके उत्तर में मेरा कहना है – या तो मुझे मुक्त करो अन्यथा मैं जीवित रहने से इंकार कर दूंगा | इससे अधिक संतोष की और क्या बात हो सकती है की कोई ब्यक्ति सिद्यान्तो के लिए जिया और सिद्यान्तो के लिए मरा | सरकार जान रही है कि अगर जेल में नेताजी को कुछ हो गया, तो देश की जनता गुस्से में पागल हो जायेगी। सो, 5 दिसम्बर 1940 को उन्हें पैरोल पर रिहा किया जाता है और एल्गिन रोड स्थित उनके घर के बाहर बंगाल सी.आई.डी. के बासठ जवानों को नियुक्त कर दिया जाता है- कुछ सादे लिबास में और कुछ वर्दी में। अंग्रेज सरकार यह नहीं चाहती थी, कि सुभाषबाबू युद्ध के दौरान मुक्त रहें। इसलिए सरकार ने उन्हे उनके ही घर में नजरकैद कर के रखा।

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