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नेताजी – जिन्दा या मुर्दा ७. एक परिचय: – नजरकैद से पलायन एवं मास्को से होते हुए बर्लिन पहुंचना |

Dharm & religion; Vigyan & Adhyatm; Astrology; Social research
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नजरकैद से पलायन

जेल से रिहा होने के बाद इन्होने एकांतवास बंद कमरे में ले लिया | देशवासियों में हल्ला हुवा – सुभास चन्द्र बोस संत हो गए | किन्तु उन्हें क्या मालूम था कि बंद कमरे में आने वाले समय का कैसा ताना-बना बुना जा रहा था | इस एकांतवास में नेताजी ने अपना दाढ़ी खूब बढ़ा लिया |

तारीख- 17 जनवरी, 1941।
समय- 01:30 बजे। (16-17 जनवरी की मध्यरात्रि)
स्थान- एल्गिन रोड, कोलकाता का एक दुमंजिला मकान।
कहीं से खाँसने की आवाज आती है और इसी के साथ मानो इंतजार कर रहे तीन लोग दबे पाँव सक्रिय हो जाते हैं। खाँसी की आवाज एक संकेत था कि रास्ता साफ है। एक युवक चुपके से गेट खोलता है। दूसरा युवक ड्राइविंग सीट पर बैठकर जर्मन कार वांडरर (नम्बर- बी एल ए 7169) को स्टार्ट करता है। तीसरा युवक बन्द गले का कोट पहने एक दाढ़ी वाले पठान को उसके सामान सहित ऊपर से लाकर कार की पिछली सीट पर बैठाता है। कार गेट से बाहर निकल जाती है। बाहर एल्गिन रोड तथा वुडबर्न रोड के चौराहे पर तैनात सी.आई.डी. वाले लकड़ी के कामचलाऊ तख्तों पर कम्बलों के बीच दुबककर निश्चिन्त आराम कर रहे होते हैं। कार हावड़ा ब्रिज होते हुए जी.टी. रोड पर आती है और शीघ्र ही आसनसोल की ओर फर्राटे भरने लगती है।
कार चलाने वाले युवक हैं- शिशिर कुमार बोस, घर में उनके जिन दो चचेरे भाईयों ने मदद की, वे थे- द्विजेन्द्र और ऑरोविन्दो बोस। कार की पिछली सीट पर बैठे हैं- इन तीनों के चाचा- एक इंश्योरेन्स कम्पनी के ट्रैवेलिंग इंस्पेक्टर पठान जियाउद्दीन की वेशभूषा में- नेताजी सुभाष चन्द्र बोस।

नजरकैद से निकलने के लिए सुभाषबाबू एक योजना बनाते हैं तथा नौशेरा जिले (NWFP) के बदरशी गाँव में फॉरवर्ड ब्लॉक के नेता मियाँ अकबर शाह को टेलीग्राम देते हैं – ‘कलकत्ता पहुँचो- बोस’; और बयालीस वर्षीय ये खूबसूरत पठान पेशावर से उसी रात फ्रंटियर मेल पकड़कर रवाना हो जाते हैं। तीन दिन बाद वे कलकत्ता पहुँचते हैं और मिर्जापुर स्ट्रीट के एक होटल में रुककर चौथे दिन एल्गिन रोड वाले घर में आकर देखते हैं- उनका नेता बिस्तर पर पड़ा है, कमजोर और दाढ़ी बढ़ी हुई। नेताजी उनसे कहते हैं- मुझे अफगानिस्तान के कबायली इलाके से होकर देश छोड़ना है, मदद चाहिए। पठान कहते हैं- आप ट्रेन से पेशावर तक पहुँचिए, आगे की जिम्मेवारी मेरी; और फिर मियाँ अकबर शाह नेताजी को जियाउद्दीन का नाम, एक इंश्योरेन्स कम्पनी के ट्रैवेलिंग इंस्पेक्टर का पेशा सुझाते हैं, पठानों की चाल-ढाल, आदतें, परम्परायें समझाते हैं और शिशिर के साथ धर्मतल्ला स्ट्रीट की प्रसिद्ध मुस्लिम दुकान (वाचेल मोल्ला) से भेष बदलने के लिए जरुरी सामानों की खरीदारी कर लाते हैं। रही बात पश्तो भाषा न जानने की, तो कोई बात नहीं, जियाउद्दीन मूक-बधिर (गूँगा-बहरा) रहेगा। योजना बनाकर मियाँ अकबर शाह लौट जाते हैं- अगली मुलाकात इंशाअल्लाह पेशावर में होगी। नेताजी पहले अपने भतीजों को, बाद में भैया (शरत चन्द्र बोस)-भाभी को भरोसे में लेते हैं। घर के नौकरों में से कुछ सी.आई.डी. से मिले हैं, अतः नेताजी कुछ दिनों के एकान्तवास के नाम पर अपने कमरे में पर्दा डाल लेते हैं कि खाना पर्दे के बाहर ही रख दिया जाय और इन दिनों वे किसी से भी बातचीत नहीं करेंगे। 17 जनवरी की रात वे घर से निकल जाते हैं- जैसा कि शुरु में ही वर्णन किया गया है।

सी.आई.डी. वाले निगरानी कर ही रहे हैं। नेताजी के कमरे में बाकायदे पर्दे के बाहर खाना रखा जा रहा है। अचानक दसवें दिन घरवाले शोर मचाते हैं- नेताजी कमरे में नहीं हैं! सी.आई.डी. के हाथ-पाँव सुन्न; और ब्रिटिश सरकार तो दो साल तक नहीं समझ पाती है कि यह हुआ कैसे! (बाद में किसी की चुगलखोरी से नेताजी के भतीजों की संलिप्तता जाहिर होती है और शिशिर बोस को सात साल की सजा हो जाती है- उन्हें अक्तूबर’44 में बदनाम लाहौर जेल भेज दिया जाता है।)

शिशिर बोस की कार बरारी आकर रुकती है। वहाँ शिशिर अपने बड़े भाई अशोक के घर रुकते हैं। अगली सुबह वहाँ से उनके ‘पठान मेहमान’ अकेले पैदल घर से निकलते हैं (ताकि नौकरों को सन्देह न हो) । बाद में पीछे से शिशिर और उनके भैया-भाभी आकर उन्हें फिर कार में बैठा लेते हैं। सभी गोमो पहुँचते हैं। आधी रात के बाद खुलने वाली दिल्ली-कालका मेल के लिए पहले दर्जे का टिकट कटाकर नेताजी उसमें बैठ जाते हैं। दिल्ली से फ्रंटियर मेल पकड़कर नेताजी 19 जनवरी को पेशावर छावनी स्टेशन पर उतरते हैं। मियाँ अकबर शाह, मोहम्मद शाह और भगतराम उन्हें लेकर ताँगेवाले द्वारा सुझाये एक अच्छे मुस्लिम होटल में पहुँचते हैं। बाद में एक और भरोसेमन्द साथी अबद खान के घर नेताजी को ठहराया जाता है। अबद खान अफगानी पठानों के रीति-रिवाजों के बारे में नेताजी को जानकारी देते हैं- वे उन इलाकों में जा चुके हैं। 26 जनवरी को नेताजी मोहम्मद शाह, भगतराम और एक मार्गदर्शक के साथ कार में अफ्रीदी कबीले की सीमा की ओर रवाना होते हैं। सीमा के बाद पैदल यात्रा प्रारम्भ होती है। आंशिक रुप से बर्फ से ढके पहाड़ों पर चलते हुए 28 को वे पहले अफगानिस्तानी गाँव में पहुँचते हैं। यहाँ से कुछ दूर तक खच्चरों की सवारी करते हुए और बाद में चायपत्ती की बोरियों से लदे एक ट्रक में हिचकोले खाते हुए सभी रात तक जलालाबाद पहुँचते हैं। यहाँ से 30 को काफिला फिर चलता है और पहले ताँगे की और बाद में ट्रक की सवारी करते हुए 31 को काबुल पहुँच जाता है।

“सुभाष को खोजो और मार डालो”

काबुल में लाहौरी गेट के पास एक सराय में वे लोग ठहरते हैं। इलाका अच्छा नहीं है। एक अफगानी पुलिसवाले को उनपर शक होने लगता है। वह बार-बार चक्कर लगाता है। अन्त में नेताजी अपनी हाथघड़ी देकर उससे पीछा छुड़ाते हैं।
नेताजी सोवियत दूतावास से सम्पर्क करते हैं, मगर उन्हें ठण्डा स्वागत मिलता है। स्तालिन ने भले हिटलर से ‘अनाक्रमण सन्धि’ कर रखी है, पर हिटलर पर उन्हें भरोसा नहीं है। सोवियत संघ पर नाज़ी आक्रमण होने की दशा में सोवियत को ‘मित्र राष्ट्र’ की शरण में जाना पड़ेगा- तब ब्रिटेन और सोवियत एक ही पाले में होंगे। शायद इसीलिए सोवियत दूतावास नेताजी को टाल रहा है। मगर नेताजी को यूरोप पहुँचना ही है। वे ‘धुरी राष्ट्र’ के दोनों देशों- जर्मनी और इटली- के दूतावासों से सम्पर्क करते हैं। यहाँ भी देर होती है। इन सबमें दो महीने बीत जाते हैं- यह नेताजी के लिए व्यग्रता का दौर है।
इसी बीच एक इतावली राजनयिक द्वारा भेजे गये सन्देश से नेताजी के काबुल में होने का राज खुल जाता है। देशवासी खुश हो जाते हैं कि उनका नेता देश को आजाद कराने के लिए किसी खास मिशन पर है और ब्रिटिश सरकार आग-बबूला हो जाती है। तुर्की में तैनात अपने गुप्तचर विभाग के विशेष एजेण्टों (Special Operations Executives- SOE) को लन्दन गुप्त आदेश जारी करता है- “सुभाष चन्द्र बोस को खोजो और उसकी हत्या कर दो। किसी कीमत पर उसे यूरोप नहीं पहुँचने देना है।” मगर ये एजेण्ट नेताजी को खोज नहीं पाते हैं- उन्हें क्या पता कि नेताजी यहाँ पाँच फीट साढ़े आठ ईंच ऊँचे अफगानी पठान ‘जियाउद्दीन’ की वेशभूषा में हैं!
अन्त में इतावली दूतावास ‘काउण्ट ओरलाण्डो मज्जोत्ता’ (या माज़ित्तो) के पासपोर्ट पर नेताजी को मास्को भेजने की व्यवस्था करता है।

16 जनवरी, 1941 को रात के १:३० बजे वे पुलिस को चकमा देने के लिये एक पठान मोहम्मद जियाउद्दीन का भेष धरकर, अपने घर से भाग निकले। शरदबाबू के बडे बेटे शिशिर ने उन्हे अपनी गाडी से कोलकाता से दूर, गोमोह तक पहुँचाया। गोमोह रेल्वे स्टेशन से फ्रंटियर मेल पकडकर वे पेशावर पहुँचे। पेशावर में उन्हे फॉरवर्ड ब्लॉक के एक सहकारी, मियां अकबर शाह मिले। मियां अकबर शाह ने उनकी मुलाकात, कीर्ती किसान पार्टी के भगतराम तलवार से करा दी। भगतराम तलवार के साथ ३१ जनवरी १९४१ को सुभाषबाबू पेशावर से अफ़्ग़ानिस्तान की राजधानी काबुल पहुंचे | इधर योजनानुसार २६ जनवरी १९४१ को परिजनों ने नेताजी को लापता घोषित कर दिया | इस सफर में भगतराम तलवार, रहमतखान नाम के पठान बने थे और सुभाषबाबू उनके गूंगे-बहरे चाचा बने थे। पहाडियों में पैदल चलते हुए उन्होने यह सफर पूरा किया। काबुल में सुभाषबाबू दो महिनों तक उत्तमचंद मल्होत्रा नामक एक भारतीय व्यापारी के घर में रहे। वहाँ उन्होने पहले रूसी दूतावास में प्रवेश पाना चाहा। इस में नाकामयाब रहने पर, उन्होने जर्मन और इटालियन दूतावासों में प्रवेश पाने की कोशिश की। इटालियन दूतावास में उनकी कोशिश सफल रही। जर्मन और इटालियन दूतावासों ने उनकी सहायता की। आखिर में ओर्लांदो मात्सुता नामक इटालियन व्यक्ति बनकर सुभाषबाबू काबुल से रेल्वे से निकलकर रूस की राजधानी मॉस्को होकर एक जर्मन मंत्री पिल्गर के सहयोग से मास्को से होते हुवे वायुयान द्वारा ३ अप्रैल १९४१ को जर्मनी की राजधानी बर्लिन पहुँचे।

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