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सबसे पहले दो मुख्य सम्भावना:
1. क्या नेताजी सोवियत संघ से भारत नहीं लौटे ?
2. क्या नेताजी सोवियत संघ से भारत लौट आये ?
अगर नेताजी भारत नहीं लौटे, तो उनके साथ क्या हुआ?
1.क) क्या स्तालिन ने नेताजी की हत्या करवा दी?
1948 तक स्तालिन ने कोशिश की, कि नेताजी ससम्मान भारत लौट जायें मगर भारत सरकार ने नेताजी को स्वीकार करने से मना कर दिया। इस पर हो सकता है कि कुछ समय बाद स्तालिन ने नेताजी की हत्या करवा दी हो। स्तालिन ने बहुतों की हत्या करवाई है। उनके लिए यह कोई बड़ी बात नहीं है। उन्हें जानने वाले उन्हें हिटलर से भी ज्यादा निर्दय और निष्ठुर बताते हैं।
1.ख) क्या नेताजी को ब्रिटेन को सौंप दिया गया?
इस विकल्प पर विचार करने के लिए हमें जरा पीछे चलना होगा। जर्मनी 1942 में लाल सेना के जेनरल वाल्शोव को युद्धबन्दी बनाता है। बाद में ये वाल्शोव जर्मनी में करीब दो लाख सैनिकों की एक सेना गठित करते हैं और लाल सेना के ही सैनिकों से सोवियत संघ में स्तालिन का तख्ता पलटने का आव्हान करते हैं। विश्वयुद्ध में जर्मनी की पराजय के बाद ये वाल्शोव ब्रिटिश सेना के हाथ लगते हैं। 1948 में वाल्शोव को उनके आदमियों सहित सोवियत संघ प्रत्यर्पित कर दिया जाता है और स्तालिन वाल्शोव तथा उनके ज्यादातर लोगों को मौत के घाट उतार देते हैं। क्या अपने दुश्मन वाल्शोव को पाने के लिए स्तालिन ने ब्रिटेन के साथ नेताजी का सौदा कर लिया?
1.ग) क्या बलूचिस्तान-ईरान सीमा पर नेताजी की हत्या की गयी?
लॉर्ड माउण्टबेटन और जनरल वावेल नेताजी को ‘मौके पर मार देने’ के हिमायती थें, बिना मुकदमा चलाये, बिना किसी प्रचार के। अतः अगर ब्रिटिश सैन्य अधिकारियों ने स्तालिन से नेताजी को (वाल्शोव के बदले) हासिल कर लिया, तो क्या उन अधिकारियों ने चुपचाप नेताजी की हत्या कर दी? (‘मिशन नेताजी’ के अनुज धर द्वारा जुटायी गयी सामग्री के अनुसार- ऐसी खबरें हैं कि कुछ लोगों ने 1948 में क्वेटा में नेताजी को देखा था | ब्रिटिश सैन्य अधिकारी उन्हें बन्दी बनाकर कार में बलूचिस्तान-ईरान सीमा के ‘नो-मेन्स लैण्ड’ की ओर ले जा रहे थे।)
1.घ) क्या नेताजी साइबेरिया जेल में परिपक्व उम्र में मृत्यु को प्राप्त हुए?
ऐसा भी हो सकता है कि नेताजी ने परिपक्व उम्र में साइबेरिया के यार्कुत्स्क शहर की जेल की एक कोठरी में अपनी अन्तिम साँस ली हो। (नेताजी का जन्म 1897 में हुआ था- परिपक्व उम्र का अनुमान आप लगा सकते हैं।)
एक तथ्य यह भी है जिसे उपर्युक्त विकल्पों के खिलाफ खड़ा किया जा सकता है जिसपर किसी का ध्यान नहीं जाता। यह तथ्य है- नेताजी ने ‘खाली हाथ’ सोवियत संघ में प्रवेश नहीं किया था, बल्कि उनके साथ ‘बड़ी मात्रा में सोने की छड़ें और सोने के आभूषण’ थे। (नेहरूजी को सन्देश भेजने वाले सूत्र के कथन को याद कीजिये- ‘…उनके साथ बड़ी मात्रा में सोने की छड़ें और गहने थे…’ ) ऐसे भी, सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि ‘आजाद हिन्द बैंक’ का सोना तीन-चार ट्रंकों में तो रखा ही होगा और उनमें से एक ट्रंक नेताजी के साथ ही सोवियत संघ तक गया होगा।
इस एक ट्रंक सोने के बदले में, अनुमान लगाया जा सकता है कि सोवियत संघ में न तो नेताजी की हत्या की गयी होगी, न उन्हें ब्रिटेन के हाथों सौंपा गया होगा और न ही उन्होंने अपना सारा जीवन साइबेरिया की जेल में बिताया होगा। उन्होंने भारत आना चाहा होगा और रूसियों को इसपर कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। अतः दूसरी सम्भावना यह है कि नेताजी भारत लौट आये।
मगर कब? क्या स्तालिन की ही अवधि में? इसकी सम्भावना कम नजर आती है। उन दिनों भारत और सोवियत संघ के बीच या नेहरूजी और स्तालिन के बीच सम्बन्ध इतने घनिष्ठ नहीं ही थे कि नेताजी और नेहरूजी के बीच किसी समझौते की गुंजाईश बने। (नेहरूजी के प्रधानमंत्री बनने पर स्तालिन ने कोई प्रसन्नता जाहिर नहीं की थी; न ही उन्होंने कभी विजयलक्ष्मी पण्डित को मिलने का समय दिया।) मार्च 1953 में स्तालिन की मृत्यु होती है और उनके द्वारा साइबेरिया की जेलों में बन्दी बनाये गये लोगों के ‘पुनर्वास’ का कार्यक्रम 1955 में शुरु होता है। जाहिर है, ‘नेताजी’ के भी ‘पुनर्वास’ का प्रश्न तब उठा होगा। ‘पुनर्वास’ के लिए नेताजी ने भारत आना चाहा होगा। उधर नेहरूजी (‘प्रत्यर्पण’ के कानूनी पचड़ों तथा ‘अराजकता’ फैलने के खतरों के कारण) नहीं चाहते कि नेताजी भारत आयें। ऐसे में, सोवियत राष्ट्रपति निकिता ख्रुश्चेव ने मध्यस्था की होगी। फैसला यही हुआ होगा कि नेताजी भारत में ही अपना जीवन गुजारेंगे, मगर ‘अप्रकट’ रहकर, जिससे कि उन्हें ब्रिटेन प्रत्यर्पित करने का मामला न उठे, और न ही देश में किसी प्रकार की ‘अराजकता’ की स्थिति पैदा हो। भले ब्रिटेन ने बीस वर्षों के लिए नेताजी को ‘राजद्रोही’ घोषित कर रखा हो, मगर नेहरूजी की प्रतिष्ठा को ध्यान में रखते हुए नेताजी ने ‘आजीवन’ ही अप्रकट रहने का ‘भीष्म’ वचन दे दिया होगा! मान लिया जाय कि सत्ता-हस्तांतरण के समय 20 वर्षों के अन्दर नेताजी के भारत आने पर उन्हें ब्रिटेन को प्रत्यर्पित करने का समझौता नहीं हुआ होगा, मगर ‘राजनीतिक अस्थिरता’ फैलने की आशंका से तो इन्कार नहीं ही किया जा सकता।
‘प्रत्यर्पण’ और ‘अराजकता’ के अलावे कुछ अन्य बातों पर भी ध्यान देने की जरूरत है | अगर नेताजी ‘प्रकट’ हो जाते हैं, तो –
1. कर्नल हबिबुर्रहमान सहित उनके दर्जनों सहयोगी और जापान देश दुनिया के सामने झूठा साबित हो जाता है।
2. उन्हें ब्रिटिश-अमेरीकी हाथों से बचाने के लिए किये गये सारे प्रयासों पर पानी फिर जाता है।
3. 21 अक्तूबर 1943 के दिन उन्होंने शपथ ली थी- “…मैं सुभाष चन्द्र बोस, अपने जीवन की आखिरी साँस तक आजादी की इस पवित्र लड़ाई को जारी रखूँगा… ।” …मगर वे ऐसा नहीं कर पाते और उन्हें लगता होगा कि अब अपने देशवासियों के बीच शान से जीने का उन्हें हक नहीं है।
खैर, ‘अप्रकट’ रहने के कारण चाहे जितने भी हों, मगर इतना है कि 1941 का “जियाउद्दीन”…, 1941 का ही “काउण्ट ऑरलैण्डो माजोत्ता”…, 1943 का “मस्तुदा”…, 1945 का “खिल्सायी मलंग”… अन्तिम बार के लिए एक और छद्म नाम और रूप धारण करता है… और सोवियत संघ से भारत में प्रवेश करता है !
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